जलवायु परिवर्तन क्या है

जलवायु परिवर्तन

प्रकृति को हम माँ का दर्जा देते हैं क्योंकि इसी ने हम सबको बनाया है। नौ ग्रहों में एक पृथ्वी ही ऐसी है जहां पर मानव जीवन संभव है। यहां हर ऋतु हर वातावरण इंसानी शरीर के अनुरूप है। ऋतुएं ही प्रकृति का अहम अंग होती है। मगर आपने कभी सोचा है आपको गर्मी के मौसम में गर्मी व सर्दी के मौसम में ठण्ड क्यों लगती है?

दरअसल ये सब कुछ मौसम में होने वाले बदलाव के कारण संभव हो पाता है। मौसम को ही किसी भी स्थान की औसत जलवायु का मापक माना जाता है, एक सिमित समयावधि के लिए इसे उस विशेष क्षेत्र पर अनुभव किया जाता है। वर्षा, सूर्य प्रकाश, हवा, नमी व तापमान किसी भी मौसम के मानक तय करने के लिए प्रमुख है।

वहीं अगर रुख करे खगोलीय नियम पर तो उसके अनुसार जलवायु में बदलाव आने में काफी समय लगता है मगर मौसम में बदलाव तुरंत हो जाता है। यही कारण है कि जलवायु परिवर्तन कम ही देखने को मिलता है। मौजूदा दौर में पृथ्वी के जलवायु में परिवर्तन देखने को मिल रहा है और इसी के साथ सभी जीवित प्राणियों ने इस बदलाव के साथ एक सामंजस्य भी स्थापित कर लिया है ।
परंतु, पिछले 150 से लेकर 200 वर्षों में प्रथ्वी पर जलवायु परिवर्तन का स्तर इतनी तेज़ी से बढ़ा है कि यहाँ पर रहने वाले प्राणियों व वनस्पति जगत को इस बदलाव के साथ कदम से कदम मिला कर चल पाने में काफी मुश्किल हो रही है। वहीं अगर देखा जाए तो इस जलवायु परिवर्तन के लिये काफी हद तक मानवीय क्रिया-कलाप ही जिम्मेदार है।

जलवायु परिवर्तन के मुख्य रूप से दो कारण है – प्राकृतिक, मानवीय

I. प्राकृतिक कारण

महाद्वीपों का खिसकना, ज्वालामुखी, समुद्री तरंगें और धरती का घुमाव यह सब जलवायु परिवर्तन के कारण है, और इन सब के लिए प्रकृति ज़िम्मेदार है।

* महाद्वीपों का खिसकना

माना जाता है कि महाद्वीपों का निर्माण प्रथ्वी की उत्पत्ति के साथ का ही है। अरबों सालों से समुद्र के ऊपर तैरते रहने की वजह से तथा वायु के तेज़ प्रवाह के कारण यह निरंतर खिसकती जा रही है। जब-जब ऐसी घटना घटित हो जाती है तब समुद्र में तरंग और हवा का प्रभाव उत्पन्न हो जाता है। इस तरह के बदलाव भी जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार होते है। इसी कारण महाद्वीपों का खिसकना भी निरंतर जारी है।

* ज्वालामुखी

एक ज्वालामुखी के फूटने पर उसमें से काफी मात्रा में सल्फरडाई ऑक्साइड, पानी, धूलकण और राख के कण निकलते हैं जो काफी मात्रा में वातावरण को प्रभावित करते हैं। हालांकि ज्वालामुखी का अस्तित्व कुछ ही दिनों के लिए होता है मगर इसके बावजूद भी इससे निकलने वाली गैसे जलवायु को लंबे समय तक प्रभावित कर सकती है। सिर्फ इतना ही नहीं गैस व धूल कण सूर्य की किरणों के मार्ग में अवरोध भी उत्पन्न कर देते हैं, जिससे वातावरण का तापमान कम हो जाता है।

* पृथ्वी का झुकाव

विज्ञान के अनुसार धरती अपने अक्ष पर 23.5 डिग्री के कोण पर झुकी हुई है। अपनी कक्षा में झुके होने के वजह से ही मौसम क्रम में परिवर्तन हो पाता है। मौसम के चक्र को इस तरह समझा जा सकता है कि अधिक झुकाव का अर्थ है अधिक गर्मी व अधिक सर्दी और कम झुकाव का अर्थ है कम मात्रा में गर्मी व साधारण सर्दी।

* समुद्री तरंगें

जलवायु को प्रभावित करने का प्रमुख कारक समुद्र है। प्रथ्वी के 71 प्रतिशत भाग पर समुद्र का ही वर्चस्व फैला हुआ है। समुद्र द्वारा धरती की तुलना में दुगुनी दर से सूर्य की किरणों का अवशोषण किया जाता है। समुद्री तरंगों के माध्यम से ही संपूर्ण पृथ्वी पर काफी बड़ी मात्रा में ऊष्मा का प्रसार संभव हो पाता है।

II. मानवीय कारण

ग्रीन हाउस प्रभाव

धरती की सतह के गर्म होने के पीछे का कारण पृथ्वी द्वारा सूर्य से ऊर्जा ग्रहण करना है। जब ये ऊर्जा खुले वातावरण में प्रवाह करती है, तो इस उर्जा का लगभग 30% भाग वातावरण में ही रह जाता है। वातावरण में उपस्थित ऊर्जा का कुछ भाग धरती की सतह पर वहीं कुछ भाग मुद्र के ज़रिये परावर्तित होकर पुनः वातावरण में लौट जाती है। वातावरण में उपस्थित कुछ गैस प्रथ्वी की सतह पर जम जाती है तथा वे इस ऊर्जा का कुछ भाग भी सोख लेते हैं। इन गैसों में शामिल होती है कार्बन डाईऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व जल कण, यह तमाम गैस वातावरण में 1 प्रतिशत से भी कम भाग में उपस्थित होती है। इन्हीं गैसों को ग्रीन हॉउस गैस कहा जाता है। जिस प्रकार से हरे रंग का कांच ऊष्मा को अन्दर आने से रोकता है, कुछ इसी प्रकार से ये गैसें, पृथ्वी के ऊपर एक परत बनाकर अधिक ऊष्मा से इसका संवरक्षण करती है।इस तरह के गैसीय प्रभाव को ग्रीन हाउस प्रभाव कहते हैं।

सबसे पहले फ्रांस के वैज्ञानिक जीन बैप्टिस्ट फुरियर ने ग्रीन हाउस प्रभाव की व्याख्या की थी। इन्होंने ही सर्वप्रथम ग्रीन हाउस व वातावरण में होने वाले समान कार्यों के मध्य संबंध को दर्शाया था।
ग्रीन हाउस गैसों का निर्माण प्रथ्वी के निर्माण के वक्त से ही हो चूका था। चूंकि अधिक मानवीय क्रिया-कलापों के कारण इस प्रकार की अधिकाधिक गैसें वातावरण में छोड़ी जा रही है जिससे ये परत मोटी होती जा रही है और इसी कारण प्रकृति द्वारा निर्मित ग्रीन हाउस गैसों का अस्तित्व धीरे धीरे समाप्ति को और बढ़ता जा रहा है।

कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस आदि इधन के जलाने से कार्बनडाई आक्साइड गैस का निर्माण होता है। वहीं हम वृक्षों को भी तेज़ी से नष्ट करते जा रहे है, ऐसे में वृक्षों में संचित कार्बन डाईऑक्साइड भी वातावरण से जा कर मिल जाती है। खेती के कामों में वृद्धि, ज़मीन के उपयोग में विविधता व अन्य कई स्रोतों के कारण वातावरण में मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड गैस का स्राव भी अधिक मात्रा में मौजूदा दौर में देखने को मिल रहा है। क्लोरोफ्लोरोकार्बन, जबकि ऑटोमोबाईल से निकलने वाले धुंए के कारण ओज़ोन परत के निर्माण से संबद्ध गैसें भी निकाल रही है ऐसे औद्योगिक कारणों से भी नवीन ग्रीन हाउस प्रभाव की गैसें वातावरण में स्रावित हो रही है। इस प्रकार के परिवर्तनों से सामान्यतः वैश्विक तापन अथवा जलवायु में परिवर्तन जैसे परिणामों का दिखना स्वाभाविक है।

हम ग्रीन हाउस गैसों में किस प्रकार अपना योगदान देते हैं?
• कोयला, पेट्रोल आदि जीवाष्म ईंधन का उपयोग कर
• अधिक ज़मीन की चाहत में हम पेड़ों को काटकर
• अपघटित न हो सकने वाले समान अर्थात प्लास्टिक का अधिकाधिक उपयोग कर
• खेती में उर्वरक व कीटनाशकों का अधिकाधिक प्रयोग कर

जलवायु परिवर्तन मानव पर नकारात्मक प्रभाव छोड़ता है। 19 वीं सदी के बाद से पृथ्वी की सतह का सकल तापमान 03 से 06 डिग्री तक बढ़ ग़या है। ये तापमान में वृद्धि के आंकड़े हमें फ़िलहाल मामूली लग सकते हैं मगर आगे चल कर यह महाविनाश के द्योतक बन सकते हैं।