महाराणा प्रताप एवं हल्दीघाटी युद्ध Maharana Pratap and Haldighati Yudh

सोलहवीं सदी के राजपूताना या राजस्थान के महान शासको में से एक माने जाने वाले महाराणा प्रताप का जन्म 1540 ई. को हुआ| बचपन में इन्हें प्यार से कीका कहकर पुकारा जाता था एवं शुरू से ही प्रताप अनुशासन प्रिय, साहसी, एवं देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत थे|

महाराणा प्रताप अपनी वीरता एवं साहस के लिए जाने जाते है जिन्होंने कभी भी मुगलों के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया जबकि अन्य सभी शासक मुगलों के सामने घुटने टेक चुके थे|

इतिहास महाराणा प्रताप को उनके और मुगल बादशाह अकबर के बीच लड़े गये हल्दीघाटी युद्ध के लिए आज भी स्मरण रखते है जो 4 घन्टे तक चलने वाला महासंग्राम था हालंकि इसमें विजय अकबर की हुई किन्तु फिर भी महाराणा प्रताप ने अत्यधिक साहस का परिचय देते हुए मुगल सेना का सामना किया|

क्या रही हल्दीघाटी युद्ध की पृष्ठभूमि?

लगभग पूरे राजपूताना पर अधिकार करने के पश्चात् अकबर मेवाड़ को हासिल करना चाहता था जिससे उसे गुजरात में प्रवेश करने में आसानी हो सके| सभी राजपूत राजाओं ने अकबर के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया किन्तु महाराणा प्रताप ने इसे अस्वीकार कर दिया|

अकबर ने कई बार राणा के दरबार में दूत भेजे एवं उन्हें मनाने का प्रयत्न किया किन्तु प्रताप ने हर प्रयास को विफल कर दिया| बार-बार मना किये जाने पर अकबर ने युद्ध का एलान कर दिया क्योकि उसे हर हाल में मेवाड़ चाहिए था|

यह युद्ध राजस्थान के हल्दीघाटी, जो घाटी के तरह संकरा पहाड़ जैसा स्थान है, जो कि गोगुन्दा के पास स्थित है वहा लड़ा गया| एक ही दिन में इस युद्ध ने निर्णायक परिणाम दिए एवं राजस्थान के इतिहास में इसका काफी महत्व है|

हल्दीघाटी का युद्ध:

हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून 1576 ई. को हल्दीघाटी मैदान में लड़ा गया जो तकरीबन 4 घन्टे तक चला| इस युद्ध में अकबर के पास 85 हजार सैनिक थे जबकि महाराणा प्रताप के पास केवल 20 हजार सैनिक बल था|

युद्ध में अकबर की सेना का मार्गदर्शन राजपूत राजा मानसिंह द्वारा किया गया| दोनों पक्षों के पास हाथी घोड़े उपलब्ध थे किन्तु गोला बारूद नहीं था| महाराणा प्रताप ने अपने प्रिय घोड़े चेतक के साथ इस युद्ध में कूच की|

आखिरकार 18 जून के दिन सूर्योदय के 3 घन्टे बाद युद्ध आरम्भ हुआ| अकबर की विशाल सेना अपने सभी सामान के साथ मैदान में प्रवेश कर चुकी थी| मुगलों ने इसमें अच्छी रणनीति का परिचय देते हुए अपने 85 सैनिको को आगे की पंक्ति में रखा एवं इसी प्रकार अलग-अलग दिशा से समूह बनाये गये जिससे राजपूतों को पूरी तरह घेरा जा सके|

इस युद्ध में महाराणा प्रताप ने काफी वजनी कवच धारण किया जिसका वजन 72 किलो के आसपास माना जाता है एवं उनके भाला 81 किलो का था जो आज भी दुर्ग में सुरक्षित रखा गया है|

प्रताप के पास 3,000 घुड़सवार थे एवं उनके साथ भीलों ने भी युद्ध में हिस्सा लिया जिन्हें सबसे पहले युद्ध में उतारा गया| 3 घन्टे तक युद्ध लगातार चलता रहा जिसमे प्रताप के 1600 सैनिक मारे जा चुके थे एवं उनका घोडा चेतक भी मारा गया|

अंत में प्रताप को यह एहसास हो गया कि मुगलों की जीत अनिवार्य है एवं वे स्वंय युद्ध में घायल हो गये| महाराणा प्रताप ने अंतत: अपनी हार स्वीकार कर ली एवं उनके साथी योद्धाओ ने उन्हें वहा से निकालने की पूरी कोशिश की एवं उन्हें पहाड़ों की तरफ भेज दिया|

अगले दिन मानसिंह ने मेवाड़ के आसपास के सभी क्षेत्रों गोगुन्दा, उदयपुर आदि पर अधिकार कर लिया किन्तु महाराणा प्रताप को खोजने में असमर्थ रहे|

इस युद्ध में प्रताप की तरफ से प्रमुख सेनाधिकारियो में रामदास राठौड़, हकीम खान सूरी, भामाशाह, भीम सिंह, बिंदा झाला आदि सम्मिलित थे जबकि अकबर की सेना में मानसिंह प्रथम, जगन्नाथ कछावा, सैय्यद अहमद खान आदि शामिल थे|

इस युद्ध के 3 साल बाद 1579 में जब मुगल बादशाह अकबर का ध्यान ईरान की तरफ मुड गया तब प्रताप फिर से सामने आये एवं मेवाड़ के पश्चिमी भागों को मुगलों के चंगुल से आजाद करवा लिया|

युद्ध के बाद की स्थिति:

कुछ इतिहासकार यह मानते है कि इस युद्ध में न तो किसी की जीत हुई न ही किसी की पराजय एवं अकबर ने उस समय राजपूतो के असीम साहस को अपने सामने देखा एवं उसने स्वयं राजपूती आन बान की प्रशंसा की|      

अकबर ने प्रताप को मनाने के लिए उसके राज्य में 6 दूत भेजे जिसमे से एक प्रसिद्ध टोडरमल भी थे किन्तु महाराणा प्रताप ने सभी को मुगलों के आगे सिर झुकाने से मना कर दिया|

प्रताप के घोड़े चेतक ने भी अति वीरता का परिचय दिया एवं अपने मालिक की जान बचाई इसी कारण आज भी चितौड में चेतक की समाधि बनवाई गई जो उसकी वीरता का परिचय देती है|

इस युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना का नेतृत्व हाकिम खान सूरी ने किया जो कि मुस्लिम सरदार थे एवं उन्होंने भी देशभक्ति की अच्छी मिसाल कायम की| इस युद्ध में मुगलों के केवल 150 सैनिक मारे गये एवं इससे यह भी पता लगता है कि मुगलों की युद्ध नीति राजपूतो की युद्ध नीति से कही अधिक श्रेष्ट थी|

निष्कर्ष:

हिन्दू शासको में महान माने जाने वाले महाराणा प्रताप ने बेशक पराजय को देखा किन्तु उन्होंने हार नहीं मानी और अंतिम समय तक घुटने नहीं टेके| जाहिर है कि उनका सैनिक बल अकबर की सेना के सामने कम था किन्तु मनोबल कही अधिक था इसलिए 3 घन्टे तक वे युद्ध भूमि में डटे रहे|

हल्दीघाटी की पीली मिटटी आज भी प्रताप की वीरता की गाथाए कहती है| महाराणा प्रताप की मृत्यु उनकी उस समय की राजधानी चावंडा में 29 जनवरी 1597 ई. को हुई उस समय वे 57 वर्ष के थे एवं धनुष की कमान चढाते समय उनकी आंतो पर आघात हुआ जिससे उनकी मौत हो गई| इतिहासकार मानते है की जब अकबर ने राणा की मृत्यु की खबर सुनी तो उसकी आँखों में भी आंसू आ गये| 2 साल तक जंगलो में भटकने के बाद एवं घास-फूस खाकर भी अपने स्वाभिमान को गिरने नहीं दिया ऐसे महान वीर राजपूत को आज भी यह धरती नमन करती है एवं आने वाली पीढ़ियों को महाराणा प्रताप की वीरता से अवगत करवाती है|