पानीपत का युद्ध Panipat ka Yudh

भारत का इतिहास अत्यधिक बड़ा व विविधताओं वाला है| प्राचीन होने के कारण यह रुचिकर है और प्रसिद्ध भी| आज के इस लेख में हम पानीपत के युद्ध के बारे में बताएँगे|

पानीपत के युद्ध इतिहास में अपनी अलग छवि के नाम से प्रसिद्ध है| अभी तक के इतिहास में पानीपत के तीन युद्ध हुए है| प्रथम व द्वितीय युद्ध सन 1500 इस्वी के काल में और सन 1700 इस्वी के काल में तीसरा व अन्तिम युद्ध पानीपत के मैदान में हुआ| प्रत्येक युद्ध अपना अलग महत्व एवं भूमिका रखता है| पानीपत के तीन युद्ध ये है:

प्रथम युद्ध- बाबर एवं इब्राहीम लोदी के मध्य  

द्वितीय युद्ध- बैरम खान एवं हेमू के मध्य

तृतीय युद्ध- मराठा एवं अहमदशाह अब्दाली के मध्य

पानीपत का प्रथम युद्ध- बाबर व् इब्राहीम लोदी:

21 अप्रैल 1526 को आज के समय में हरियाणा कहे जाने वाले राज्य के एक छोटे से गाँव पानीपत में बाबर और इब्राहीम लोदी के मध्य लड़ा गया| इसी युद्ध के फलस्वरूप भारत में मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की शुरूआत हुई|

इस युद्ध में पहली बार बारूद एवं आग से बने हथियारों का प्रयोग किया गया था एवं काफी बड़े पैमाने पर नए शस्त्रों का इस्तेमाल किया गया|

बाबर काबुल का एक शक्तिशाली शासक था जिसका पूरा नाम जहीरुद्दीन मोहम्मद बाबर था| इब्राहीम लोदी उस समय दिल्ली सल्तनत पर राज कर रहा था|

हरियाणा राज्य के कई हिन्दू राजा इस युद्ध में शामिल हुए एवं ग्वालियर के कई राजा इब्राहीम लोदी की तरफ से युद्ध में सम्मिलित हुए|

बाबर ने इस युद्ध में तुलुगुमा युद्ध पद्धति अपनाई, जो अन्य युद्ध नीतियों में से एक उत्तम युद्ध प्रणाली मानी जाती है|

इब्राहीम लोदी की सेना में लगभग एक लाख लोग सम्मिलित थे, जबकि बाबर की सेना में 20,000 के करीब सैनिक मौजूद थे एवं यह काफी बड़ा अंतराल था फिर भी इस युद्ध में जीत बाबर की हुई|

युद्ध का परिणाम:

सेना के एक विशाल अंतराल होने के बावजूद मुग़ल साम्राज्य एवं दिल्ली सल्तनत के बीच हुए इस युद्ध में बाबर अपनी कूटनीति एवं युद्ध नीति के कारण विजयी हुआ|

इस युद्ध के बाद बाबर ने दिल्ली सल्तनत पर कब्जा कर लिया एवं मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक के रूप में जाना जाने लगा|

पानीपत का द्वितीय युद्ध- बैरम खान एवं हेमू:

5 नवम्बर 1556 ई. को पानीपत के मैदान ने फिर से एक विशाल युद्ध देखा, जो कि अकबर के सेनापति बैरम खान एवं आदिलशाह के सेनापति हेमू जिसका पूरा नाम हेमचन्द्र विक्रमादित्य के मध्य लड़ा गया|

युद्ध की पृष्ठभूमि:

1556 में मुग़ल साम्राज्य के द्वितीय शासक हुमायूँ की मृत्यु के बाद उसके पुत्र अकबर ने बहुत ही कम आयु तेरह वर्ष में मुग़ल सत्ता अपने हाथ में ली, किन्तु उस समय उनकी आयु मात्र 13 वर्ष थी, इसलिए बैरम खान उनके सरंक्षक के रूप में सामने आया|

हेमू उस समय अफगान शासक आदिलशाह के सेनापति के पद पर कार्यरत था एवं हुमायु की मृत्यु का लाभ उठाते हुए उत्तर भारत पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया एवं दक्षिण के तरफ भी कई युद्ध जीते|

6 अक्तूबर के दिन हेमू ने दिल्ली की लड़ाई में 3000 मुग़ल सैनिको को मौत के घाट उतार दिया, जिससे मुगलों में आक्रोश उत्पन्न हो गया एवं बैरम खान ने हेमू को ईट का जवाब पत्थर से देने की ठानी| हालंकि अकबर इस युद्ध के पक्ष में नहीं था|

अंतत: पानीपत के प्रथम युद्ध के 30 वर्ष बाद फिर से एक और युद्ध का ऐलान किया गया| दोनों सेनाएं 5 नवम्बर को पानीपत के मैदान में आमने-सामने आई एवं इस युद्ध में भी मुगलों का सैनिक बल कम था|

युद्ध के परिणाम:

इस युद्ध में बैरम खान विजयी हुआ एवं हेमू को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा| हेमू का सिर धड से अलग करके दिल्ली के दरवाजे पर टांग दिया गया एवं बाकी शरीर को दिल्ली के पुराने दुर्ग पर लटका दिया गया, जिससे अन्य विद्रोहियों के मन मे मुगलों के प्रति भय पैदा हो सके|

अकबर ने एक बार फिर दिल्ली सल्तनत को अपने हाथ में लिया और साथ ही अन्य विद्रोहियों को पकड़कर उन्हें भी मौत की सजा सुनाई गई|

युद्ध के कुछ समय बाद हेमू के पिता को भी अलवर से गिरफ्तार करके उन्हें भी मार दिया गया|

पानीपत का तृतीय युद्ध- मराठा एवं अहमदशाह अब्दाली:

यह युद्ध मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ एवं दुर्रानी साम्राज्य के शासक एवं संस्थापक अहमदशाह अब्दाली के बीच 14 जनवरी 1761 ई. में लड़ा गया|

अहमदशाह अब्दाली अफगान शासक था, जो कई बार भारत आ चुका था| इसी समय पंजाब का सूबेदार किसी लड़ाई में बूरी तरह परास्त हुआ, जिससे दिल्ली साम्राज्य ने पंजाब को अफगान के हवाले कर दिया और अब्दाली ने पिछले सूबेदारों को हटाकर अपने अधिकारयों को उनका पद दे दिया एवं अफगान लौट गया|

अब्दाली की गैर मौजूदगी का लाभ उठाकर मराठो ने पंजाब पर हमला कर दिया एवं लाहौर पर कब्जा कर लिया| इसी बात से नाराज होकर अब्दाली ने मराठा साम्राज्य से युद्ध करने की योजना बनाई|

इस युद्ध में पेशवा बालाजी बाजीराव ने अपने सेनापति सदाशिव राव के नेतृत्व में विशाल सेना भेजी एवं 14 जनवरी को दोनों सेनाएं पानीपत के मैदान में आमने-सामने इकठी हुई|

युद्ध के परिणाम:

इस युद्ध में काफी नुक्सान के साथ मराठों की बुरी तरह से हार हुई| इस हार का कारण ये था कि अब्दाली का सैनिक बल मजबूत था और उत्तरी भारत के सभी मुस्लिम शक्ति ने अब्दाली का साथ दिया| इसके अलावा मराठाओं द्वारा पंजाब पर आक्रमण करने की वजह से वहाँ के सिख व् राजपूत सैनिकों ने भी मराठा के विरुद्ध होकर लड़ाई लड़ीं व मराठा सेना के मध्य संगठन शक्ति व समता की कमी भी पराजय का कारण बनी|  

निष्कर्ष:

युद्ध की विजय या पराजय सेनानायक व सैनिकों की कुशलता, बुद्धिमता व युद्धनीति पर निर्भर करती है| ऊपर दिए गए उल्लेख में यह तथ्य तो सिद्ध हो ही गया कि केवल सैनिकों की संख्या अधिक होने से विजय हासिल नहीं की जा सकती|  

हमारा इतिहास काफी गौरवपूर्ण रहा है| हालांकि कभी कहीं नुकसान झेलना पड़ा तो कहीं लाभ भी हुआ| इतिहास के कुछ पन्ने भयभीत व निराश करने वाले हैं तो कुछ गर्व महसूस करवाने वाले| परन्तु हार व जीत का सिलसिला हमेशा से चलता आया है और चलता रहेगा|