विकास का सिद्धांत
विकास निरंतर चलने की एक सतत प्रक्रिया है। गर्भावस्था से ही मानव के विकास की प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जो अंतिम समय तक चलती है। हालाँकि विकास की गति निरंतर नहीं रहती कभी यह तेज़ी से बढ़ती है तो कभी मंद हो जाती है। अक्सर देखा जाता है कि बालक के विकास की गति मंद होती है, उदहारण के लिए शिशु के मस्तिष्क का विकास एक दम से न हो कर धीरे-धीरे होता है। कई बार विकास का क्रम तो एक समान होता है किन्तु विकास की गति भिन्न हो जाती थी। जैसे की समझा जा सकता है, शिशु अवस्था में और किशोर अवस्था में तो विकास की गति तेज हो जाती है मगर बाल्यावस्था आने पर विकास की गति मंद हो जाती है। वहीं अगर देखा जाए तो बालक के अपेक्षा बालिका की विकास गति मंद हो जाती है। वहीं अगर विकास के सिद्धांत की बात की जाए तो इस पर अनेक विद्वानों के अनेक-अनेक मत है। मगर इसके बावजूद कई ऐसे सिद्धांत है, जो हर क्षेत्र में लागू होते हैं।
निरंतरता का सिद्धांत – जैसा की हम पहले भी बात कर चुके हैं कि विकास की प्रक्रिया कभी रूकती नहीं है। जन्म से लेकर म्रत्यु तक मानव के शारीरिक और मानसिक विकास की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। वहीं अगर विज्ञान के दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह प्रक्रिया माँ के गर्भ से ही शुरू हो जाती है। विज्ञान के अनुसार बालक के जन्म की वजह दो कोषों अर्थात शुष्क और अड़ के निषेचन का परिणाम है। इसके बाद कई परिवर्तनों के बाद अड़ मानव के रूप में तब्दील होता है, यह निरंतर होते विकास की वजह से ही संभव है। इन साक्षों से यह स्पष्ट होता है कि विकास एक निरंतर चलने की प्रक्रिया है।
एकरूपता का सिद्धांत – विकास के सिद्धांत पर यदि चिंतन किया जाए तो कहीं न कहीं आपको इसमें एकरूपता भी दिखेगी। चाहे मानव की व्यक्तिगत भिन्नता कितनी भी क्यों न हो लेकिन जब विकास की बात आती है तो यहाँ एकरूपता देखी जा सकती है। इसको इस तरह से समझा जा सकता है कि एक बच्चा महाराष्ट्र में पैदा हुआ दूसरा बच्चा उसी समय गुजरात में पैदा हुआ अब एक चाहे मराठी बोले और दूसरा गुजराती मगर बोलेंगे तो एक ही समय पर। वहीं अगर दूसरी तरह देखा जाए तो बालक में विकास के क्रम में भी एकरूपता पाई जाती है। अर्थात हर बालक का शारीरिक विकास की शुरुआत मस्तिष्क से ही होती है। हालाँकि विकास की गति मंद और तेज़ हो सकती है मगर क्रम में सदैव एक रूपता पाई जाती है।
साधारण से विशेष की यात्रा – जैसा की हम अपने आस-पास देखते हैं और अनुभव करते हैं कि बच्चा पहले साधारण बात सीखता है। और जब वो साधारण बातों को समझने लग जाता है तब उसका मस्तिष्क विशेष बात सिखने की और अग्रसर हो जाता है। इसी की कड़ी में मनुष्य पहले अपने सम्पूर्ण शरीर को हिलाना सीखता है उसके बाद वो किसी विशेष भाग को मस्तिष्क की कमांड के अनुसार चलाता है। अर्थात जैसे-जैसे बालक शारीरिक विकास करता है, तो वो नई चीजें सिखने लग जाता है। उदहारण के तौर पर देखा जा सकता है कि पहले बालक अपने पूरे हाथ को हिलाता है उसके बाद उँगलियों को।
वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धांत – मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह सिद्धांत अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मनोविज्ञान ने वैयक्तिक भिन्नता के सिद्धांत पर विश्लेषक टिप्पणी दी है। जिसके अनुसार एकरूपता का सिद्धांत हर बार सही नहीं होता। एक ही आयु वर्ग के विभिन्न बच्चों के विकास में विभिन्नता देखी जा सकती है। वहीं जुड़वां बच्चों में भी वैयक्तिक भिन्नता को देखा जा सकता है।
वंशानुक्रम और वातावरण के प्रभाव का सिद्धांत – यह बात समझना बेहद जरुरी है कि विकास के सिद्धांत में वंशानुक्रम और वातावरण का संयुक्त रूप से प्रभाव पड़ता है। विकास के सिद्धांत में इन दोनों में से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। इस तरह यदि बच्चे के वातावरण में परिवर्तन कर दिया जाए तो उसके विकास की गति तीव्र हो सकती है।
भविष्यवाणी का सिद्धांत – हम उपरोक्त सिद्धांतो से अब तक यह तो आसानी से जान चुके है कि बालक के विकास गति को देखते हुए उसके भविष्य के बारे में आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। बालक के व्यवहार से यह पता चल जाता है कि उसकी रूचि किस क्षेत्र में है या वो किस क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता है। उसे सम्मान की आवश्यकता है या नहीं ? वो अत्यधिक अहंकारी तो नहीं ? अतः भविष्यवाणी का सिद्धांत विकास के सिद्धांत में अपनी ख़ास जगह रखता है।
विकास की दिशा का सिद्धांत – जैसा कि हमने पहले भी पढ़ा था बालक में विकास सर से प्रारंभ होता है। अर्थात पहले उसका मस्तिष्क प्रबल होता है, और सबसे आखिर में पैरों का विकास होता है। अगर विकास के सिद्धांत को गहराई से समझा जाए तो इसे तीन तरह से समझा जा सकता है।
- सिर से पाँव की ओर
- रीढ़ की हड्डी से बाहर की ओर
- पहले स्वरुप तथा उसके बाद क्रिया
नियंत्रण का सिद्धांत – एक नवजात शिशु न अपने मूल्यों को जानता है और न ही वो अपने सिद्धांतो से परिचित होता है। अतः वो जीवन जीने की इन जरुरी चीजों के लिए दूसरों पर निर्भर होता है। किन्तु जब एक मानव अपनी शैशवावस्था को छोड़कर बाल्यावस्था में प्रवेश करते हैं तब उनके मस्तिष्क का विकास हो जाता है। उसके बाद वे अपने मूल्य, सिद्धांत, सीमा, अपेक्षा अपने रूप तथा अपने विकास के अनुरूप बना लेते हैं।
पूर्ण विकास का सिद्धांत – मनोविज्ञान की शिक्षा बालक के पूर्ण विकास पर अत्यधिक बल देती है। पूर्ण विकाससे अभिप्राय बालक के सामाजिक, शारीरिक, भावात्मक और मानसिक विकास से है। इस सिद्धांत के अनुसार अभिभावकों एवं अध्यपकों को बच्चों के विकास को हर क्षेत्र में मोड़ने की आवश्यकता है।
परिपक्वता का सिद्धांत – किसी भी शुशु का जब मानसिक और शारीरिक विकास होता है तो असल मायने में वो उसकी परिपक्वता का विकास होता है। परिपक्वता एक ऐसा सिद्धांत है जो शारीरिक विकास और मानसिक विकास दोनों को प्रभावित करता है। बालक जब एक कार्य को करने की परिपक्वता हासिल कर लेता है तो वो उसकी मदद से और कार्य करने की परिपक्वता भी आसानी से हासिल कर सकता है। इस सिद्धांत को इस तरह समझा जा सकता है कि एक दुबले पतले शरीर वाला बालक है, और अगर उसे पहलवानी की और अग्रसर किया जाता है तो निश्चित रूप से वह नहीं कर पाएगा। क्योंकि वो शारीरिक रूप से उसके लिए तैयार नहीं है।
पियाजे का सिद्धांत – पियाजे के सिद्धांत के अनुसार जैसे बालक की शारीरिक और मानसिक विकास में वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे उसके सोचने,समझने, सिखने तथा पढने का दायरा भी बढ़ता जाता है। इसी सिद्धांत के अनुरूप बाल्यावस्था में शिशु की सिखने वाली चीजों के अध्यनकर्ता तथा पुर्नबलन सिद्धांत को देने वाले विचारक डोलार्ड और मिलर के अनुसार नवजात शिशु को स्तनपान करा कर उसकी भोजन आवश्यकता को हर बार पूरा नहीं किया जा सकता। बच्चें को अपनी भोजन व्यवस्था को पूर्ण करने के लिए अत्यधिक स्तनपान करने की आवश्यकता है जिसके लिए उसे अत्यधिक संघर्ष की आवश्यकता पड़ती है।
इन विभिन्न सिद्धांतो का अध्यन कर हम विकास के सिद्धांत को आसानी से समझ सकते हैं।
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