बचपन एवं विवाह:
रानी लक्ष्मी बाई का जन्म का वास्तविक नाम ‘मणिकर्णिका’ था और प्यार से इन्हें मनु कहकर बुलाया जाता था| इनका जन्म मराठी ब्राह्मण परिवार में 19 नवम्बर 1828 ई. को उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी में हुआ था और मृत्यु 29 वर्ष की आयु में जून 1858 ई. को ग्वालियर के कोटा की सराय में हुई थी|
इनके पिता मोरोपंत ताम्बे मराठा में बाजीराव के दरबार में कार्यरत थे, इनकी माता भागीरथी साप्रे एक बुद्धिमान स्त्री थी| लक्ष्मी बाई जब अपनी आयु के चौथे वर्ष में थी तब उनकी माता का देहावसान हो गया था|
वर्ष 1842 ई. में झाँसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर से विवाह के सूत्र में जुड़कर मणिकर्णिका नेवालकर घराने की वधू और झाँसी क्षेत्र की रानी के पद पर विराजी|
विवाहोपरांत इन्हें लक्ष्मीबाई के नाम से संबोधित किया जाने लगा| वर्ष 1853 में इनके पति गंगाधर राव की शारीरिक स्थिति अत्यंत खराब होने के कारण इन्होने दत्तक पुत्र ग्रहण किया, जिसका नाम दामोदर राव ररखा| हालांकि इससे पहले 1851 ई. में लक्ष्मीबाई को पुत्र रत्न प्राप्ति हुई थी, परन्तु जन्म के चार माह में उसकी मृत्यु हो गई थी|
उस समय के दौरान ब्रिटिश सरकार के सरकार के दत्तक पुत्र ग्रहण करने से सम्बन्धित नियमो की पालना की गई, जिसमे ईस्ट इंडिया कम्पनी के राजनैतिक एजेंट मेजर एलिस की उपस्थिति में दत्तक ग्रहण की कागजी प्रक्रिया की गई|
महाराजा गंगाधर ने एलिस को अपनी लिखित वसीयत व् अन्य आवश्यक दस्तावेज सौंपकर इन्हें लार्ड डलहौजी तक पहुचाया|
रानी के पति की मृत्यु के बाद की विकट परिस्थितयां:
नवम्बर 1853 में गंगाधर राव की मृत्यु हो गई और अंग्रेजो ने इस विकट स्थिति का गलत फायदा उठाने के बारे में सोचा| तत्पश्चात 1854 ई. में ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल डलहौजी द्वारा राज्य हडप नीति अपनाई गई, जिसे अंग्रेज ‘डोक्ट्रिन ऑफ़ लेप्स’ कहते थे, जिसमे झाँसी राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में एकीकृत करने का निर्णय लिया गया और दामोदर राव को झाँसी का उत्तराधिकारी मानने से मना कर दिया गया|
इसके विरुद्ध लक्ष्मी बाई द्वारा अदालत की सहायता ली गई और ब्रिटिश वकील जॉन लेंग के साथ भी परामर्श किया गया, किन्तु वे अपने प्रयासों में सफल नहीं हो सकी और अंतत: 7 मार्च 1854 ई. को अंग्रेजो ने झाँसी राज्य व् इसके शाही खजाने पर कब्जा करके लक्ष्मी बाई को किले को छोड़कर जाने पर मजबूर कर दिया| इसके अलावा रानी लक्ष्मी बाई पर अपने पति गंगाधर राव द्वारा लिए गये कर्ज को चुकाने का भी आदेश जारी कर दिया गया|
इस कर्ज की कटौती इनके वार्षिक खर्चे में से देने का आदेश था| इसके बाद वे किला छोडकर रानी महल में रहने चली गई|
अंग्रेजो से टक्कर:
इसके बाद से लक्ष्मी बाई के मन में अपने राज्य को वापस लेने की इच्छा जागृत हुई और वे अपने पुत्र के अधिकारों व् अपने राज्य को लेकर चिंतित रहने लगी| रानी को यह बात समझ आने लगी थी कि बिना लड़ाई लड़े या बिना किसी संघर्ष के वे अपना राज्य वापस नहीं ले सकती, इसी विचार पर आगे बढ़ते हुए उन्होंने इस हेतु तैयारी करनी शुरू की|
सर्वप्रथम लक्ष्मी बाई ने एक स्वयं सेवी सेना बनाने की कोशिश प्रारंभ की, जिसमे स्त्रियों को भी शामिल किया गया और तलवार बाजी, शत्रु से सुरक्षा और युद्ध सम्बंधित अनेक गुर सिखाये जाने लगे|
सेना में झाँसी राज्य के साधारण नागरिको ने भी शामिल होने का साहस दिखाया| तब झलकारी बाई नाम की एक स्त्री को सेना प्रमुख बनाया गया, जिसका कारण यह था कि वह दिखने में रानी लक्ष्मी बाई जैसी थी, जो युद्ध के दौरान एक सकारात्मक पहलू सिद्ध हो सकता था|
समयावधि बीतने के साथ-साथ लक्ष्मी बाई के पुत्र की आयु 7 वर्ष की होने पर उनका उपनयन संस्कार करने की घड़ी आई, इस अवसर पर रानी लक्ष्मी बाई ने आसपास के राजाओं, महाराजाओं एवं मित्रगणों को आमंत्रित करने की सोची, ताकि वे अवसर के बहाने उनके साथ अपनी युद्ध नीति के सम्बन्ध में चर्चा कर सके और भविष्य में अपनी नीति संचालन के विषय में अन्य कुशल लोगों की राय प्राप्त कर सके|
उस समय राजसी बैठक में युद्ध सम्बन्धी विचार-विमर्श में तरह-तरह के सुझावों व् परामर्शों का आदान-प्रदान हुआ| तात्या टोपे भी तब अप्रत्यक्ष रूप से उनकी सहायता के लिए तत्पर थे|
समय के साथ-साथ रानी लक्ष्मी बाई की अपने राज्य को पाने की इच्छा प्रबल होती जा रही थी और वे अपने सेनाबल को मजबूत करने के लिए निरंतर कार्यरत थी| अब उनमे देशभक्ति की भावना दिनोदिन बढती जा रही थी|
आखिर वर्ष 1858 ई. में वह समय आ गया था, जब ब्रिटिश सेना ने युद्ध करने के पथ पर आगे बढने की सोची और इस वर्ष की शुरुआत में जनवरी माह में ही अंग्रेजो की सेना ने युद्ध के उद्देश्य से झाँसी राज्य की तरफ अपने कदम बढ़ाने शुरू कर दिए|
मार्च माह में ब्रिटिश सेना ने झाँसी तक पहुंचकर इसकी घेराबंदी कर ली और अंग्रेजो एवं लक्ष्मी बाई की सेना के मध्य युद्ध आरम्भ हुआ, जो लगभग 2 सप्ताह तक चला| लड़ाई के दौरान लक्ष्मी बाई अपने बेटे के साथ कालपी में तात्या टोपे तक पहुँच चुकी थी|
मई माह में अंत में रानी अपने सहयोगियों व् सेना के साथ ग्वालियर पहुंची और वहां के किले पर जीत हासिल की, तब जून माह में ब्रिटिश सेना भी सूचना मिलते ही वहां पहुंची और आक्रमण कर दिया| यह अंग्रेजो एवं लक्ष्मी बाई की सेना के मध्य अंतिम युद्ध था, जिसमे रानी स्वयं पूरे साहस के साथ अंग्रेजों के खिलाफ लड़ी एवं अपने साहस का परिचय देते हुए अंग्रेजों को लोहे के चने चबाने पर विवश कर दिया|
रानी लक्ष्मी बाई के साहसी रवैये व् देश भक्ति को अंग्रेजो ने भी सराहा एवं इसी युद्ध के दौरान रानी लक्ष्मी बाई अपने राज्य की रक्षा करते हुए वीर गति को प्राप्त हो गई|
आज इतिहास के पन्नो में हम रानी लक्ष्मी बाई के साहस व् वीर गाथा के बारे मे पढ़ते है| उन्होंने एक मर्द की तरह वीरता एवं दमखम दिखाते हुए जान हथेली पर रखकर ब्रिटिश सेना से टक्कर ली, इसलिए रानी लक्ष्मी बाई के लिए कहा जाता है, “खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी”| आज तक दुनिया उनके बलिदान को भुला नहीं सकी है और आज भी झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई इतिहास के पन्नो में अमर है|
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